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Thursday, June 12, 2014

बाबाओं के देश से!


छम्‍मकछल्‍लो को देश के सभी बाबाओं पर अगाध आस्‍था है। पूरा देश इनके प्रति आस्‍था रखता है। बाबाओं पर आस्‍था देश पर आस्‍था है। बाबा का सम्मान देश का सम्मान है! देका सम्‍मान तो करना पड़ता है न! अब कोई हमारा सम्‍मान ना करे तो हम क्‍या करें! मर्जी उनकी। आखिर, भाव है उनके।
भावों के भाव बड़े मोल- भाववाले होते हैं। बाजार-भाव उठता-गिरता रहता है। बाजार के साथ वे स्वच्छ आशा से ओतप्रोत राम और देव, कृष्‍ण और बापू, भगवान और परमात्मा होते रहते हैं।
देश में बाबा अनादिकाल से हैं। प्राचीनकालीन बाबाओं ने कभी दधीचि बनकर अस्थि-दान किया तो कभी विश्वामित्र बनकर दूसरी सृष्टि का निर्माण। बाबा आज भी हैं। आज के बाबा अपने आश्रमों का निर्माण करते हैं और भक्तों से अस्थि-दान की अपील करते हैं। आज के बाबाओं का इस धरा पर होना बड़ा लाजमी है, वरना देश डूब जाएगा रसातल में।
अपने यहाँ एक बा‍बा तुलसीदास भी हो गए। तनिक पढ़े-लिखे थे। सो रामचरित मानस लिख गए। लिख तो डाला, मगर पता नहीं, किस-किस इंफीरियैरिटी कॉम्‍प्‍लेक्‍स से भरे रहे कि पूछिए मत! लिख मारा
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी,
सकड़ ताड़ना के अधिकारी
      कोई-कोई कहते हैं
ये सब ताड़न के अधिकारी
जो लाइन अच्‍छी लगे, रख लीजिए। पाठान्तर होने से मूल भाव थोड़े ना बदले हैं।
      रोने की बारी आई तो तुलसी बाबा ने सजीव-निर्जीव, को एक ही श्रेणी में रख दिया, जैसे
हे खग-मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी।
और भी कि
घन घमंड, नभ गरजत घोरा, प्रियाहीन डरपत मन मोरा!

कहकर पक्षी, पशु, मेघ, भंवरे सबको एक ही जमात में शामिल कर दिया। राम को अपने इस वियोग में कोई मनुष्‍य नजर नहीं आया, जिनसे वे सीता का अता-पता पूछते। इससे पता चलता है कि तब भी लोकापवाद का कितना भय था। जानवर, चिडि़या, मेघ, बादल थोड़े ना चुगली की चटनी चाटते हुए आपस में कहते फिरेंगे कि देखो, राम की लुगाई गुम गई। यह अमित वरदान तो मनुष्‍य के पास सुरक्षित हैलुगाई राजा की गायब हो या रंक की, उसका गायब होना ही ड़ा चटखारेदार विषय है। निश्चित रूप से राम डर गए होंगे। जंगल में थे। वनवासी के रूप में। राजगद्दी भरत के हाथ में थी। सहायता मांगते, पता नहीं, मिलती कि नहीं। सामने भावावेश में खड़ाऊँ उठा लेना और घर पहुँचकर इतने सालों बाद भी उसी भाव पर टिके रहना- दोनों में बड़ा अंतर है! मनुष्‍य जन्‍म लिया था, सो उसकी हर ऊंच-नीच से वाकिफ थे। तुलसी बाबा ने तो राम के लिए मनुष्‍य की श्रेणी ही नहीं रखी वानर सेना बनाई राक्षसों से लड़ने के लिए। उससे अधम रूपवाले ढोल, गंवार, शुद्र, पसु, नारी का वर्गीकरण अलग से
      छम्‍मकछल्‍लो को लगता रहा कि क्‍या सोचकर तुलसी बाबा ने ढोल को ताड़न का अधिकारी बनाया? बताइये जरा! ढोल अपनी देह पर मनुष्य के हाथों के थापों के असंख्‍य दर्द झेलकर वह नाद, वह संगीत उत्‍पन्‍न करता है, जिस पर मन झूम जाता है। उसी ढ़ोल को ताड़न का अधिकारी बना दिया? हवन करते हाथ जले, इसी को कहते हैं शायद! ज़रूर तुलसी बाबा ने झूम बराबर झूम शराबी जैसा कुछ सुन लिया होगा अपने समय में! यह झूम-पदार्थ शायद वे लेते नहीं होंगे, इसलिए खीझ, क्षोभ और गुस्से में भरकर ढोल को ताड़न की श्रेणी में रख दिया।
गंवार!’ कोई पूछे उनसे कि आप क्‍या इंग्‍लैंड से उठ कर आए थे कि अमेरिका से? या खुद को गंवार मानकर उसी इंफीरियॉरिटी कॉम्‍प्‍लेक्‍स में जीते और गाते रहे
            चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़
            तुलसीदास चन्दन रगड़ें, तिलक करें रघुवीर!
चन्दन घिसनेवाला ओबामा या पुतिन तो नहीं ही कहलाएगा न! गंवार, माने बोका! बेवकूफ!! हर गंवई गंवार! उनका गंवार शब्द इतना प्रचलित हुआ कि इस नाम से हिन्दी में एक फिल्‍म भी बन गई। शब्द का ऐसा असर हुआ कि आजतक किसी गंवई को कोई सम्‍मान या आदर से नहीं देखता। सबकी नजरों में गांव के लोग गंवार, जाहिल, असभ्‍य हैं। ऐसे लोग मनुष्‍य तो कतई नहीं हो सकते।  
फिर शूद्र कैसे मनुष्‍य हो जाएंगे? वर्ण-व्‍यवस्‍था में उन्‍हें पैरों का स्‍थान दे दिया। कह तो दिया कि उसकी पूजा करो। आज भी लोग सम्मान जताने के लिए पैर छूते हैं। हालांकि अब गाल से गाल सटाकर पुच्च पुच्च ध्वनि निकालते हैं। तुलसी बाबा! इस पुच्च पुच्च को ढ़ोल की ध्वनि के साथ नादमय किया जाए तो कैसा लगेगा! शूद्रों को पैर पर बैठा दिया, लेकिन माथेवाले बुद्धिमान भूल गए कि पैर नहीं रहेंगे तो क्‍या माथे के बल चलोगे? बाबा ने उसी समय कह दिया कि शूद्र को पीटो। आज चाहे कर लीजिए लाख दलित-विमर्श! मन में जो छूत-अछूत बैठा है, वह न हरिजन कहलाने से गया न दलित कहने से जा रहा है! विश्वास न हो तो आरक्षण की चर्चा जरा किसी से छेड़ दीजिए!
पशु तो वैसे ही पशु है जंगली हो या घरेलू। बाबा ने वैसे अच्‍छा किया कि इन्‍हें मनुष्‍य से दूर रखा। मनुष्‍य तो जब जिधर सुन्‍दर देखा, उधर की आंख चला देते हैं, जो रसीला देखा, उधर हाथ बढ़ा देते हैं। जानवर बिचारे! जब तक छेड़ो नहीं, भौंकते नहीं। जबतक भूख ना लगे, किसी को मारते नहीं।
और नारी! बाबा ने तो कमाल कर दिया ऐसा कि आजतक स्‍त्री मनुष्‍य रूप में नहीं आ पाई है। मनुष्‍य तो छोडि़ए, वह औरत भी नहीं है। वह मादा है, भोग्‍या है, मां है, बीबी है, बहन है, बेटी है, वेश्‍या है, मगर औरत नहीं है। वह देवी है, दासी है, पर स्‍त्री नहीं है। आज स्त्री-विमर्श चल रहा है। स्त्री अपने खोल से आगे आने के लिए स्वतंत्र-चेता होने जाती है, तो उसे मर्दों के खेला में स्त्री के नाच की संज्ञा दी जाने लगती है। सात दिन से सत्तर साल तक की स्त्री आज भोग्या है। जलाते रहिए कैन्डल! कितना जलाएंगे? इतने ताड़न के बाद भी किस नारी के ताड़न की बात कही बाबा ने? कहीं रत्‍ना तो नहीं?
बाबा की दूरदृष्टि तेज थी। आखिर मानस लिखा है! उन्‍हें अहसास हो गया था कि आनेवाले समय में मनुष्‍य अपने दिमाग की कौड़ी चलाएगा और खुद को स्‍थापित करने के लिए दो तत्वों का सहारा लेगा दलित और स्‍त्री! जैसे नेतागण गरीबी और विकास का झंडा लहराते हैं, जैसे तमाम धार्मिक बाबा लोग बड़े-बड़े मखमली आसनों पर बैठकर नश्‍वरता और अनश्‍वरता का पाठ पढ़ाते हैं, जैसे स्वच्छ दरबार लगाकर वे भक्‍तों की फरियाद सुनते हैं। उनके हाथ के इशारे भर से फरियादी के दुख दूर हो जाते हैं। जो जित्‍ता बड़ा बाबा, उसकी महिमा उतनी ही न्‍यारी। सभी जानते हैं, बाबा लोग चमत्‍कार नहीं, जादू करते हैं। विदेशी उनके चमत्‍कारों की पोल खोलते हैं, फिर भी वे मरते नहीं, परम तत्व में विलीन होते हैंउनके देह- त्‍याग पर बड़े-बड़े नेता सहित देश के प्रधानमंत्री तक श्रद्धांजलि देने जाते हैं। हाय रे परसाई जी की विकलांग श्रद्धा का दौर!
दलित और स्‍त्री पहले तो मनुष्‍य ही नहीं हुए और यहाँ दोनों एक साथ हो गए यानी दलित स्‍त्री! यह तो कान में कनखजूरा घुसने की स्थिति है। औरत वैसे ही चटखारेदार विषय! दलित स्‍त्री तो गरीब की भौजाई!से हर कोई जैसे चाहे सलूक कर सकता है। किसी को अपना बड़प्‍पन और दलित वर्ग के प्रति अपनापन दिखाना हुआ तो उसके घर रूककर भोजन कर लिए, तो किसी को उस भोजन में हनीमून दिख जाता है। सभी को पता है कि एक शाम खाना खा लेने से या किसी के पैर छू लेने से न दलितों का कुछ बननेवाला है न स्त्रियों का कुछ संवरनेवाला है! लेकिन, इन पर पतली कमर है, तिरछी नज़र है कहने और रखनेवालों को मुन्नी बदनाम हुई से लेकर बहुत कुछ मिल जाता है- जैसे चाँद से चाँदनी भी है और चाँद से मधुचन्दा भी! चाँद कम रसीला थोड़े ना था, वरना ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या को छल से हासिल कराने के लिए वह क्यों इंद्र का साथ देता! काम गलत तो लो दाग- इन्द्र भी और चाँद तुम भी!
हनीमून औकातवालों को दिखता है। दलित को दाल-रोटी मिल जाए, यही बहुत है। स्त्री तो हनीमून का वह सूटकेस है, जो अटैची बन साथ चलने के लिए मजबूर है। आज के बाबा लोग बड़े-बड़े औकातवाले लोग हैं। उनके बड़े-बड़े भक्‍त होते हैंबड़े-बड़े उनके उपदेश होते हैंवे बड़े-बड़े त्‍यागी होते हैंबड़े-बड़े ब्रह्मचारी होते हैंये सभी से बड़े-बड़े त्‍याग, संयम और ब्रह्मचर्य की अपील करते रहते हैं। वो दूसरी बात है कि कभी कभी अपने ही संयम की तथाकथित बड़ी-बड़ी रजाई में से उनके ही संयम की लार बह जाती है। हनीमून तो छोटी सी बात है।

और हम औरतें! छोटी! तुच्छ!! और दलित औरतें तो उससे भी गई-बीती! औरतें ऐसी उलझनभरी शय हैं, जिनका नाम दिखता है, शरीर दिखता है, मगर वे खुद नहीं दिखतीं। फिर भी गजब तुलसी बाबा की महिमा कि बावजूद इसके, वे ताड़न की अधिकारी हैं। चलिए, कहीं तो कोई अधिकार दिया आपने! तो प्रेम से बोलिए तुलसी के संग-संग सभी बाबाओं की जय! ####

2 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मानवीय सोच समझ लिए अपने जीने का हक़ चाहने वाली औरतें सच में देह से ज़्यादा कुछ नहीं समझीं जातीं.... इंसान तो हरगिज़ नहीं

Vibha Rani said...

शुक्रिया मोनिका जी।