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Tuesday, May 20, 2014

मेरे पढ़ने-लिखने का लेखा-जोखा- (वाजिब है हमरे लिए दफा 302) मीनाक्षी धन्वन्तरी

मीनाक्षी धन्वन्तरी- छममकछल्लो के लिए आज तक यह नाम एक ब्लॉगर तक ही महदूद था। आज सुबह-सुबह फेसबुक पर "शुक्रवार" के 11-17 अप्रैल, 2014 के अंक में छपी कहानी "वाजिब है हमरे लिए दफा 302" पर इनकी भाव व अभिव्यक्ति से सराबोर सँदेसे आने लगे। छममकछल्लो पढ़ कर नि:शब्द! स्त्रियों की स्वभावजनित उत्तेजना के साथ साथ मीनाक्षी के पति विजय चुपचाप इस कहानी और इसकी पीड़ा के साथ- साथ यात्रा करते रहे। मीनाक्षी ने अपनी बातें अपने ब्लॉग "प्रेम ही सत्य है" पर पोस्ट किया है। एक पाठक किसी कहानी पर कैसे सोचता है, इसका एक बेहतरीन उदाहरण है, मीनाक्षी की यह पोस्ट। धन्यवाद शब्द बेमानी है। कहानी भी छममकछल्लो कहीस पर है और मीनाक्षी की बातें उनके ब्लॉग http://meenakshi-meenu.blogspot.in/2014/05/2-302.html के साथ-साथ यहाँ भी। पढ़ें और अपनी राय से वाकिफ कराएं।

नमस्ते विभाजी...आपकी कहानी "वाजिब है हमरे लिए दफ़ा 302" पढ़ कर हम जड़ हो गए थे ... लगने लगा जैसे शब्दों ने शरीर धारण कर लिया हो और उनके भाव आत्मा बन कर हमारी आत्मा को झंझोड़ने लगे...खूबसूरत भावों से भरे शब्द रग़ों में बहने लगते हैं ... आपकी कहानी के कुछ अंश लेकर उनके बारे में कुछ चर्चा करने की कोशिश की है या कहिए कि अपने ही दिल को हल्का करने का बन्दोबस्त... "समाज से जुड़ी पोस्ट को लेकर अक्सर हम दोनों पति-पत्नी में बहस और कभी तल्खी हो जाती है, जिसके लिए समय चुनते हैं शाम की सैर का...पति जितनी शांति से बात करते हैं मुझे उतना ही गुस्सा आता है. जैसे कि विभाजी की पोस्ट को पढ़ने के बाद हुआ.. सुबह पोस्ट पढ़ने के बाद दोनों ही जड़ से हो गए थे.. विजय चुपचाप ऑफिस चले गए और मैं काम में लग कर उस कहानी को भुलाने की कोशिश करने लगी. जीवन से जुड़ी किसी घटना को कहानी का चोगा पहना दिया जाता है. किसी न किसी सच से उपजती है कहानी.. तभी दिल तड़प उठता है क्योंकि कहानी का सच हमें जीने नहीं देता. कहानी के पात्र हवाओं में घुल कर साँसों में उतरने लगते हैं और दम घुटने लगता है .. दोपहर फिर वापिस आई ... चाहकर भी अपने आप को रोक न पाई. दुबारा उस कहानी को पढ़ने लगी... अपनी गर्भवती बहन लल्ली का खून करने वाला बड़ा भाई और उसकी दलीलें नश्तर की तरह चुभने लगीं..जो इंसान ज़रा से ख़ून को देख कर चक्कर खाकर गिर जाए उसे समाज की ज़हर बुझी बातें कितना ताकतवर बना देती हैं कि वह कुछ भी कर गुज़रता है. इस देस में सबको एतना बोलने का आजादी काहे है जज साहेब? हम बड़ी डरपोक किसम के हैं। खून देख के हमको उल्‍टी-चक्‍कर आने लगता है। कहियो मेढक का डिसेक्‍शन नहीं कर सके। हमरा साथी सब मेढक को उल्‍टा करके उसका चारो टंगड़ी कील से ठोक देता। चारो पैर तना हुआ आ बीच में उसका फूला पेट, जिसके ऊपर से कैंची चलनेवाला था उसका पेट फाड़ने के लिए। जिंदा मेढक- छटपटाए नहीं, छटपटाकर भागे नहीं, इसके लिए कील में ठोका मेढक- माफ कीजिएगा जज साहेब, हमको जाने क्‍यों ईसा मसीह याद आ गए। हमको चक्‍कर आ गया। हम बेहोश हो गए। पैंट भी गीला हो गया। मोहल्‍ले की दादी-चाची-फुआ से उनके घरों की बाकी सभी औरतों और वहां से उनके मरद और मरद से बच्‍चों तक को हमरी ई बीमारी का पता लग गया। जनी-जात हमको देख पूछ बैठती -'बउआ, मन ठीक है न अब?' मर्द कहते -'काहे रे? एतना बड़ा हो गया, अखनी तक पैजामा में मूतता है!' और बच्‍चे तो हमको देखते ही ताली पीट-पीटकर चिल्‍लाने लगते -'मूतना, मूतना।' हमरा तो नामे जज साहेब मूतना पड़ गया। “बाकिर ई समाज जज साहेब! एकदमे चौपट निकला। चौपट से बेसी बदमाश, जिसको दूसरे के घर में आग लगाकर हाथ सेंकने में बहुते मजा आता है। पढ़ाई और नौकरी का ऊंच-नीच लल्‍ली बूझ गई, मगर जिनगी के ऊंच-नीच में तनिक गड़बड़ा गई। हालांकि हमरे हिसाब से ऊ कोनो गड़बड़ नहीं था जज साहेब। मगर ई समाज, जो ऊपरवाले की बनाई चीज पर भी अपनी जबान चलाने से बाज नहीं आता, ऊ इंसान के उस काम को कैसे सह लेता, जिसमें उसकी रज़ामन्दी ना हो? जो कोई जिधर टकरा जाता, एके सवाल पूछता -'रे मूतना, तेरी बहिन का कुछ पता चला?... अब तो ऊ पूरी चमइन हो गई होगी? राम-राम, मुर्दा खाती होगी। चमड़ा निकालती होगी।“ हमारा मन करता, सबको चीर कर रख दें. मगर हम तो एक ठो चींटी भी नहीं मार सकते थे, आदमी को क्या मारते? लोग-बाग हमको देखते और बोलने लगते -'रे मूतना, रे तुम्‍हारे जीजा का क्‍या हाल है? आदमी को चीर रहा है कि मरी गइया का खाल उतार रहा है? उसके साथ गाय खाया कि नहीं? चमड़ा उतारा कि नहीं?' एक दिन फिर हमको बुलउआ आया- मोहल्‍लावाला का। सामने एक ठो कुत्ता मरा पड़ा था। सब बोले -'रे मूतना, देखता क्‍या है?ई कुतवा को उठा ईहां से। मर्जी तो इसकी खाल खीच, चाहे तो इसका मांस पका। हमको भी बताना, कइसा लगता है इसका स्‍वाद! सुने हैं कुत्ते का मांस बड़ा गरम होता है। गरमी ज्‍यादा चढ़े तो मेहरारू पर उतार लेना।' हम, गणेश तिवारी, जिसकी पैंट चार कील पर उल्‍टे टांगे मेढ़क को देखकर गीली हो गई थी, वही गणेश तिवारी यानी मूतना अपने टोले-मोहल्‍ले की बात से इतना ताक‍तवर हो गया कि उसको लल्‍ली और जयचंद का खून देखकर न पसीना आया, न बेहोशी छाई, न उसकी पैंट गीली हुई। मन की व्‍यथा का सबूत कइसे दिखाया जाए? हाथ गोर काट-पीट अधमुआ कर दिया तो दफा 307 लगा दिया। शीलहरण किया तो 376 लगा दिया। मार दिया तो 302 लगा दिया. लेकिन हमरे मन के हाथ पैर को दिन-रात काटा जाता रहा, मन को बार-बार मारा जाता रहा, हमरे शील सुभाव को बीच चौराहे पर नंगा किया जाता रहा, उसके लिए कौन सा दफा लगेगा जज साहेब? शाम छह बजे ऑफिस से लौट कर विजय कपड़े बदलकर मुँह हाथ धोकर फौरन ही सैर के जूते कस लेते हैं , मैं पहले ही तैयार रहती हूँ.... सैर करते हुए फोन पर गज़लें सुनने की इच्छा हम दोनों की नहीं थी क्योंकि विजय के दिल और दिमाग में भी लल्ली जयचन्द और गणेस घूम रहे थे..."लल्ली और जयचंद कितने खुश थे , गणेश भी अपनी बहन बहनोई से मिलकर खुश था फिर उसने ऐसा क्यों किया.... " मैंने दुखी मन से बात शुरु की जिसके जवाब में ठंडी साँस लेते हुए पति बोले, "हम समाज में रहते हैं जहाँ कुछ भी लीक से हट कर हो तो ऐसा ही होता है' मुझे सुनकर इतना गुस्सा आया कि चिल्ला उठी कि समाज क्या है... उसका वजूद हमसे ही है...हम सबसे मिलकर बना है समाज फिर क्या मुश्किल है कि हम एक दूसरे की सोच को सहन नहीं कर पाते. मैं जाने क्या क्या बोले जा रही थी और विजय चुपचाप सुन रहे थे. उनके पास मेरे सवालों का एक ही जवाब था शिक्षा..लल्ली की सोच में बदलाव शिक्षा के कारण था.... खुद ब खुद समझ आने लगा कि किसी भी बदलाव के लिए कुछ भी सहने के लिए अगर हम तैयार नहीं हैं तो गणेश तिवारी जैसे कई पैदा होते रहेंगे. देश के कोने कोने में अगर ज्ञान की ज्योति जलने लगे तो घर परिवार में बेटा बेटी को बराबर का प्यार और मान-सम्मान मिलेगा. फिर किसी लल्ली को घर से भागना नहीं पड़ेगा... कोई गणेश तिवारी टोले मुहल्ले की बातें सुनकर कसाई नहीं बनेगा.....शिक्षा ही एक ऐसा मूलमंत्र है जो अमीरी ग़रीबी और ऊँच नीच के भेदभाव को भुलाकर सबको एक सूत्र में बाँधता है. हँसती खिलखिलाती लल्ली भूलती नहीं....जाने कितनी और हैं जिन्हें ऐसा अंजाम न मिले इस दुआ के साथ ।

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