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Sunday, October 11, 2009

"किरात पर्व"- बांग्ला नाटक की इतनी लचर प्रस्तुति?

http://mohallalive।com/2009/10/11/nehru-centre-theatre-festival-7th-day/

http://reporterspage.com/miscellaneous/23-24

नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल में 1970 में उत्पल दत्त द्वारा स्थापित पीपल्स लिटिल थिएटर (पीएलटी) ने उन्हीं का लिखा नाटक "किरात पर्व" प्रस्तुत किया. उत्पल दत्त इसके पहले लिटल थिएटर ग्रुप (एलटीजी) की स्थापना कर चुके थे. पीपल्स लिटिल थिएटर अबतक 60-61 नाटक प्रस्तुत कर चुका है. यह ग्रुप बांग्ला के शम्भू मित्र के "बहुरूपी", अजितेश बनर्जी के "नन्दीकार" या बादल सरकार के थिएटर से अलग है. इसके अपने आदर्श हैं.
बंगाल कला, संस्कृति की धरती है और यहां के बच्चे बच्चे में इसके प्रति रुझान देखी जा सकती है. बांग्ला थिएटर भारत मे एक समृद्ध थिएटर के रूप में माना जाता है और हिन्दी थिएटर की परिपक्वता, मानसिकता, निरवहन आदि की बात आने पर बांग्ला और मराठी थिएटर से उसकी तुलना कर के हिन्दी की अपरिपक्वता की बात की जाती है. इस नाटक को देखते हुए इस पर अब बहस की जा सकती है, मगर यहां नहीं.
कथावस्तु के मूल में कह लें कि शासक और शोषित की चली आ रही और कभी भी खत्म ना होनेवाली परम्परा है. आर्य और अनार्य, ब्राह्मण और शूद्र और आर्यों द्वारा अनार्यों पर अपना जवबरन अधिकार मगर उनके प्रति उतनी ही घृणा, जो आज के ब्राहमणवाद के बहुत करीब है. जिन अनार्यों, किरात, निषाद, राक्षस आदि से शरीर के छू जाने पर भी उन्हें तत्काल मृत्युदंड दे देना बदन पर पडी धूल झाड देने के समान है, युद्ध के समय उन्हीं लोगों के युवाओं को मरने के लिए भेज देना आम बात है. युद्ध में मारे गए पांच पुत्रों की मां का प्रश्न बहुत सहज है, जिसका उत्तर आज तक कोई नहीं दे सका है कि "जीवन तो ले लेते हो, जीवन क्या वापस ला कर दे सकते हो?" वेद पाठ करनेवाले शूद्रों को जीवित जला देना शास्त्र सम्मत मान लिया जाता है. महाभारत काल की कथा के माध्यम से इनके प्रति भेदभाव और ब्राहमणवाद, क्षत्रियवाद या यों कह लें कि सुविधाभोगी समाज में सुविधाभोगियों द्वारा सभी कायदे कानून अपने हिसाब से बना लेना और उस पर चलना यह सत्ताधारियों या तथाकथित बडे लोगों का सबसे मनोरंजक शगल है.
यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आखिर क्या बात है कि पौराणिक आख्यानों का बार बार हम मँचन करते हैं, इसके उत्तर में कहा जा सकता है, उनमें से अज के लिए कुछ सटीकता की खोज. यह नाटक भी इसी की एक खोज है. मैने यह नाटक पढा नही है, मगर महाभारत की प्रस्तुति और आर्य अनार्य की चर्चा के बाद अचानक हिटलर का प्रसंग ले आना और फिर महाभारत प्रसँग ला कर नाटक खत्म करना एकाएक नाटक की तन्द्रा में बडा भरी झोल पैदा करता है. हो सकता है कि हिटलर के समय में भी वही शुद्धतावादी रक्त का आग्रह था, इसलिए इसे यहां डाला गया हो, मगर यह आग्रह तो अभी भी अपने समाज में ही है. आज भी शूद्रों पर ताने कसना, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की मेधा पर सन्देह करना आम बात है. अगर अपने ही देश की इस तरह की घटनाओं को लेकर इसे जोडा जाता तो यह अधिक सटीक बन पडता. महाभारत के आख्यान की तरह ही यदि कोई ग्रीक, जर्मन पौराणिक आख्यान जोड जाता तब भी आख्यानों की सटीकता के साथ उसके सन्दर्भ को देखा जा सकता था. मगर हिटलर प्रसंग तो एक ऐतिहासिक प्रसंग है. उससे इस पूरे नाटक में एक अजीब सा घालमेल पैदा हो गया.
नाटक बहुत ही धीमी गति में था. कलाकारों में ऊर्जा (एनर्जी) का भयंकर अभाव दिखा. शायद ऐसा लगभग सभी कलाकरों के उम्रदराज होने की वज़ह से भी हो सकता है. सम्वाद की बहुलता तो हिन्दी नाटकों को भी मात कर रही थी. कृष्ण की हंसी कंस की हंसी जैसी थी और अर्जुन अपने मद में चूर दिखे. सबसे अधिक कोफ्त पैदा कर रही थी शबरी की भूमिका में रीता चक्रवर्ती. नाटक से पूरी तरह असम्पृक्त सारे समय अपने कपडे ठीक करने में लगी रही. सम्वाद बोलने के समय बस बोल दिया और छुट्टी.
वेश भूषा ठीक थी, मगर अस्त्र-शस्त्र को देख कर हंसी आ जाए ऐसे, जैसे रामलीला हो रही हो. शूद्र संत पालुका पर फेंके जा रहे थर्मोकोल के पत्थर करुणा के बदले हास्य उत्पन्न कर रहे थे. इतने पुराने नाट्य ग्रुप से ऐसी प्रस्तुति की उम्मीद नहीं थी. (पुन: इस नाटक की दर्शकता का हाल भी दो दिन पहले खेले गए मलयालम नाटक जैसा ही था. सभागार के कर्मियों ने ही हंसते हुए कह दिया कि आप कहीं भी बैठ सकती हैं. सभागार के बाहर लगनेवाली क्यू का कहीं नामो-निशान नहीं था. खुद नेहरु सेंटर के अधिकारीगण मध्यांतर के बाद नहीं दिखे. अकादमी ऑफ आर्ट के छात्र भीड दिखाने में ज़रा कामियाब रहे, क्योंकि उन्हें इस फेस्टिवल पर प्रोजेक्ट करना है. अधिकांश दर्शक बांग्लाभाषी थे. मध्यांतर के बाद उनमें से भी कई चले गए. पत्रकार दीर्घा लगभग खाली था. एक युवा मराठी दर्शक ने कहा कि ये लोग इतना क्यों बोलते हैं? मेरे पास इसका जवाब नहीं था, इसलिए मैं भी गोल गोल मुंह बनाकर रह गई. निर्देशक असित बासु ने बातचीत करने में कोई रुचि नहीं दिखाई. धन्यवाद उनके एक कलाकार प्रताप घोष का, जिन्होंने बात की, जानकारियां दीं और बहुत मुद्दे की बात यह कही कि हमलोग थिएटर से पैसे लेते नहीं, बल्कि ज़रूरत पडने पर देते ही हैं और यह भी कि हम थिएटर से पैसे नहीं, बस केवल नाम् और यश चाहते हैं.)

1 comment:

राजीव तनेजा said...

इतना सटीक विश्लेषन कैसे कर लेती हैँ आप?